कांशीराम जी द्वारा लिखित 'चमचा युग' नामक किताब के पृष्ठ क्रमांक 80-81 में यह लेख अंकित

कोई औजार, दलाल पिट्ठू अथवा चमचा इसलिए बनाया जाता है ताकि उससे सच्चे और वास्तविक संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके। चमचों की मांग तभी होती है जब सामने सच्चा आउर वास्तविक संघर्षकर्ता मौजूद हो । जब किसी लड़ने वाले की ओर से किसी प्रकार की कोई लड़ाई न हो, संघर्ष न हो और कोई खतरा न हो तो चमचों की भी मांग नहीं रहती है। जैसा कि हम देख चुके हैं कि लगभग पूरे भारत में बीसवीं शताब्दी के शुरुआत से ही दलित वर्ग छुआछूत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था । शुरुआत में उनकी उपेक्षा की गई किंतु बाद में जब दलित वर्गों का सच्चा नेतृत्व प्रबल और शक्तिसम्पन्न हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं कि जा सकती थी। इस मुकाम पर उच्च जातीय हिंदुओं को दलित वर्गों के विरुद्ध चमचों को उभारने की जरूरत महसूस हुई । 

गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डॉ आंबेडकर दलित वर्गों के लिए सर्वाधिक विश्वासोउत्पादक रूप से लड़े । उस समय तक गांधी जी और कांग्रेस का ऐसा ख्याल था कि दलित वर्गों के पास कोई ऐसा वास्तविक नेता नहीं हैं जो उनके लिए लड़ सके । सन 1930-31 के आसपास गोलमेज सम्मेलनों के दौरान गांधी जी और कांग्रेस के तमाम विरोधों के बाउजूद दलितों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान करते हुए प्रधानमंत्री का साम्प्रदायिक निर्णय 17 अगस्त 1932 को घोषित कर दिया गया। 1930 से 1932 के इस अवधि के दौरान गांधी जी और कांग्रेस ने पहली बार चमचों की आवश्यकता अनुभव की । 

(कांशीराम जी द्वारा लिखित 'चमचा युग' नामक किताब के पृष्ठ क्रमांक 80-81 में यह लेख अंकित है)

Post a Comment

0 Comments